नासमझ हो तुम
नासमझ हो तुम अगर पत्थर से उसकी कोमलता का अनुमान लगाओ। चाँदनी से तराशे हैं उसके वक्र, मुलायम हवाएँ जैसे काँस के फूलों में पवन गुदगुदी करती हों। उसके अंग की गरमाहट वैसी है, जैसे शरद ऋतु में धरती से गुनगुनाता पानी निकलता हो। वह तारों की टिमटिमाहट का सार है, बैंगनी सुगंध से उसकी ज़ुल्फ़ें बनी हैं। चन्द्रमा की मृदुलता और रेशम-सी नरमाई उसकी रगों में बहती है। बादलों से पैदा हुई फुसफुसाहट से उसकी आवाज़ शुरू होती है। धरती उसकी कोमलता से प्यार करती है और चाहती है कि वह स्त्री अपनी आत्मा की हर ख़ुशी को व्यक्त करे। नारित्व से परिपूर्ण, सौम्य, और पवित्र, सुगंधित तेल भी उसके पसीने से जलते हैं। और तुम संगमरमर से कोई स्त्री नहीं बना सकते यह केवल एक कलात्मक नक़ल है। क्योंकि इस तरह का दिव्य, अलौकिक, नाज़ुक, और महीन होता है ओस की आख़िरी बूँद और कुमुदिनी का स्वप्न।